बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

LESSON PLAN HINDI CLASS 6 TO 12 (पाठ योजना हिन्दी कक्षा 6 से 12 )

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मंगलवार, 29 मार्च 2022

दुलाई वाली - बंग महिला

 





    बंग महिला  :दुलाई वाली

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक हिन्दी कहानी की आरंभिक कहानियों में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित  कहानियों को गिना है – जिनमें इंदुमती (1900) – किशोरी लाल गोस्वामी, ग्यारह वर्ष का समय (1903ई-),  और  दुलाई वाली’ (1907) को उन्होंने भावप्रधान कहानियों में माना है। पहली कहानी माने जाने के संदर्भ में उन्होंने ‘दुलाई वाली’ को तीसरे नंबर पर रखते हुए लिखा है-

‘‘ यदि ‘इंदुमती’ किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिंदी की पहली कहानी यही ठहरती है। इसके उपरांत ‘ग्यारह वर्ष का समय’ फिर ‘दुलाई वाली’ का समय आता है।

‘दुलाई वाली’ की रचयिता ‘बंग महिला’ हैं। बंग महिला का असली नाम राजेन्द्र बाला घोष था। इनका जन्म सन् 1882 ई. में हुआ था। वे मिरजापुर निवासी प्रतिष्ठित बंगाली सज्जन बाबू राम प्रसन्न घोष की पुत्री और बाबू पूर्णचंद्र की धर्मपत्नी थीं। इन्होंने हिंदी में कुछ मौलिक कहानियों की रचना तो की ही साथ ही कई बंगला कहानियों का अनुवाद भी किया। उनके द्वारा रचित ‘दुलाई वाली’ सन् 1907 ई- में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी। सन् 1910 ई में शुक्ल जी के संपादन में इनका संकलन ‘कुसुम संग्रह’ के नाम से प्रकाशित हुआ।


                                                                           बंग महिला

‘दुलाई वाली’ आधुनिक हिन्दी कहानी की प्रारम्भिक रचना है। एक तरह से आधुनिक कहानी के आकार-ग्रहण की कुलबुलाहट को इस कहानी में महसूस किया जा सकता है। शिल्प की बुनावट और शैली की कसावट इस कहानी में नहीं है। बेहद सीधी और सपाट बयानगी का मुजाहिरा होता है। हल्की कथावस्तु को बहुत हल्के-फुल्के ढंग से ही कहानीकार ने प्रस्तुत कर दिया है।

वंशीधर और नवलकिशोर दोनों प्रगाढ मित्र हैं। वंशीधर सरल व गंभीर व्यक्ति हैं किंतु नवलकिशोर हँसोड़ और मजाकिया हैं। उनके मजाक से विशेष रूप से वंशी की पत्नी डरी और चिढी रहती थी। किंतु पति की मित्रता के कारण वह शांत थी। पूरी कहानी नवलकिशोर के मजाकिया स्वभाव और रेल-यात्र के दौरान वंशीधर को छद्म वेष में परेशान करने के इर्द-गिर्द घूमती है।

वंशीधर अपने ससुराल आए हैं। आचानक ही तार मिलता है कि उन्हें सपत्नी वापस जाना है क्योंकि उनका मित्र भी आ रहा है और मुगलसराय से इलाहाबाद तक की यात्र वे एक साथ करेंगे। वंशीधर मित्र से मिलने और साथ चलने की खुशी में मग्न होते हैं किंतु जानकी को यह नहीं सुहाता। नवलकिशोर ने जहाँ और जिस समय मिलने का समय दिया था वे नहीं मिले। वंशीधर काफी चिढे हुए थे किंतु क्या करते, सफर तो करना ही था। मुसीबत तब हुई जब उसी डिब्बे में एक ऐसी महिला सवारी चढी जिसका पति छूट गया था। सभी लोग सहानुभूति तो दिखा रहे थे किंतु कोई उसकी मदद को आगे नहीं आ रहा था। ऐसे में वंशीधर ने उसे सही स्थान पर पहुँचाने का जिम्मा लिया। वंशीधर को पूरा यकीन था कि महिला का छूटा पति अगले स्टेशन पर जरूर तार कर देगा कि वह आ रहा है। बदनामी और अन्य कई तरह की बातों से बचने के लिए वे कुछ सवारी महिलाओं के साथ अगले स्टेशन पर उतरे। वे तार पता करने गए, इस बीच सभी सवारियाँ चली गयीं। उधर तार न आया देखकर वंशीधर पेशोपेश में फँस गए। क्या करें, क्या न करें। झुंझलाकर उस दुलाई वाली से साथ आई सवारियों के बारे में पूछा- ‘‘ तू ही उन स्त्रियों को कहीं ले गई है। ’’ इस पर दुलाई वाली ने घुंघट उठाई और वंशीधर को पता चला कि वह कोई और नहीं उसका मित्र नवलकिशोर है। सब ठठाकर हँस पड़े।


शिल्प की अनगढता के बावजूद इसमें आकस्मिकता, रोचकता, नाटकीय तत्व आदि को अपनाया गया है जिसके कारण प्रारम्भ की अवयस्कता के बावजूद यह कहानी पाठक को निराश नहीं करती।

शनिवार, 13 जून 2020

ख्वाहिश

10 मई 2016, हम सभी दोस्त दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावास के प्रांगण मे बैठे बातचीत कर रहे थे, या यूं कहें हर शाम की तरह चाय पर चर्चा हो रही थी..! चूँकि दिन था मातृ दिवस का, तो हर कोई भावनाओं के सरोवर मे गोते लगा रहा था. किसी को माँ की डांट याद आ रही थी, तो किसी को माँ का प्यार, रोहन मेरी ओर इशारा करते हुए कहा, क्यूँ शायर साहब, माँ पर कोई गज़ल नहीं सुनाओगे,..??
मैंने कहा आदरणीय मुनव्वर राणा साहब ने कुछ छोड़ा ही नहीं है अब माँ पर लिखने के लिए...! मजाकिया लहजे मे कहा उसने की ठीक है फिर जगाओ अपने अंदर के आदरणीय मुनव्वर राणा साहब को..! मैंने कहा अर्ज़ किया है फिर, उम्मीद है आप सब की संवेदनाओं पर दस्तक देगा...! गौर फर्माइएगा...


चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है 

मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है 

                                     (मुनव्वर राणा) 


सब वाह वाह करने लगे..... इतने मे एक लड़का जो वहाँ के कैन्टीन मे काम करता था, चाय की खाली ग्लास उठाते हुए कहा, शायर साहब, "मैंने जन्नत तो देखी है माँ नहीं देखी है"..…! 
सब अचानक स्तब्ध हो गए..! हमारे बीच का कोलाहल अचानक सन्नाटे मे तब्दील हो गया..! हम सब एक दूसरे के तरफ निःशब्द देखने लगे..! मैंने बहुत ही दबे आवाज मे कहा i am.... i am.... Sorryyyy यार.... I didn't mean.... मुझे बीच मे रोकते हुए, एक छोटी सी मुस्कान के साथ... अरे नहीं भैया, मेरी माँ जिन्दा है, स्वस्थ है, और बहुत खुशी खुशी अपना जीवन व्यतित कर रही है..! और अल्लाह ताला से उनकी लंबी उमर की दुआ करता हूँ, अल्लाह बरकत नवाजे उन्हें..! उसकी बात सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया, और हज़ारों सवाल मेरे अंतर्मन मे कौंधने लगा, क्यूँकी उसकी निराश आँखें उसके शब्दों की गवाही नहीं दे रहा था...!!

मैंने पूछा फिर तुमने ऐसा क्यूँ कहा कि, तुमने जन्नत तो देखी है माँ नहीं देखी...! वो मजाकिया लहजे मे इंकार करने लगा, कहने लगा कि जाने दो भैया, लंबी कहानी है..! मेरे बहुत insist करने पर वो वहीँ सामने पड़ा एक पत्थर पर बैठ गया..! कुछ देर तक यूँ ही खामोश पत्थर पर पत्थर बना बैठा रहा..! और शून्य मे देखते हुए अचानक बोल उठा, मेरे अब्बू ने दो शादियाँ की है..! मेरी अम्मी मेरे जन्म के एक महीने के बाद ही घर छोड़ कर चली गई..! सब कहते हैं मेरी अम्मी बहुत खूबसूरत थी..! वैसे अम्मी खूबसूरत ही होती है..! पर अब्बू के साथ उनकी बिल्कुल नहीं बनती थी..! अम्मी के घर छोड़ के जाने के बाद अब्बू ने दूसरी निकाह कर ली, और नई अम्मी के आने के बाद मेरी परवरिश की जिम्मेदारी मेरी खाला के हाथों मे सौंप दी गई..!

जब मैं लगभग 10 साल का हुआ, जब मुझे समाज के ताने-वाने व उलाहने का मतलब समझ मे आया तो मैंने अपनी खाला से अपनी अम्मी के बारे मे पूछा...! पर खाला ने कुछ भी बताने से साफ इंकार कर दिया..! बहुत पता करने के बाद पता चला कि उन्होंने भी दूसरी निकाह कर ली है और अभी अपने शौहर और दो बच्चों के साथ बहुत खुशी पूर्वक अपना जीवन व्यतित कर रहीं हैं..!

वैसे होश सम्भालने के बाद कभी कभी अब्बू से मिलना हो जाता था..! वो हर महीने मेरी परवरिश के लिय पैसे भेजते थे, मेरी परवरिश मे कोई आर्थिक कमी नहीं होने दी उन्होंने..! बस मेरा उनके पास होना उन्हें मंजूर नहीं था, कि शायद फिर मैं उनके और नई अम्मी के बीच कोई फसाद की वजह ना बन जाऊँ..! अब्बू को ये भी लगता है कि शायद मेरी ही वजह से अम्मी छोड़ गई उनको..!!

जब भी फिल्म मे माँ बेटे के प्यार को देखता था तो अपने आप ही आंसू मेरे पालकों का साथ छोड़ देता था, फिल्म के उस तरह का दृश्य मेरे मन मस्तिष्क पर हमेशा छाया होता था...! कि दस साल बाद कोई बेटा अपनी माँ से जब मिलता है, तो माँ उसे गले लगा लेती है और सारी दुश्वारियां, सारी मजबूरियां सब जन्नत सा महसूस होने लगता है..! इसी सपनों को संजोए जीवन को जिए जा रहा था..!

फ़रवरी महीने मे कश्मीर मे बहुत बर्फबारी होती है, 2 फरवरी 2010.... हाँ यही दिन था वो, जो मेरे मानस पटल पर शायद हमेशा अंकित रहेगा..! रात के 2 बजे बर्फीली रात मे अपने घर से निकल गया माँ के तलाश मे, या कह लो कि मंजिल की तलाश मे..!! करीब 40 किलो मीटर दूर मीरपुर जिले मे अम्मी अपने नए परिवार के साथ रहती थी..! फिरदौस मेरी खाला जान की बेटी, उसने मुझे सारा पता बता दिया था..! माँ से मिलने का ख्वाब बार बार मेरी आँखें भर दे रहा था..! पूरे रास्ते यही सोचता गया, कि बहुत सारी बातें करूंगा, अब्बू की शिकायत करूंगा, और ये भी बताऊँगा, कि नई अम्मी जब सऊदी गई थी तो मेरे अलावा सब के लिय उपहार लायी..! गले से लिपट जाऊँगा और साथ ले आऊंगा अम्मी को..! अगर साथ आने को नहीं मानी तो कहूँगा की मुझे ही अपने पास रख ले..! इसी उधेड बुन मे पता नहीं चला कि कब मीरपुर पहुँच गया..!!

सुबह के दस बज रहे थे। जब वहां फिरदौस के द्वारा बताए गए पते पर पूछते- पूछते पहुंचा। एक बुजुर्ग ने बताया कि वो हरे रंग का दरवाजा है, वही घर है। मैं खुशी खुशी दरवाजे की ओर आगे बढ़ा । तभी उस दरवाजे से एक सात-आठ साल का बच्चा बाहर आता हुआ दिखा...! मैंने उससे पूछा अम्मी कहाँ हैं। उसने घर की तरफ इशारा करते हुए अपने दोस्तों के पास चला गया जो बाहर उसका इंतज़ार कर रहे थे। मैं अंदर गया देखा कि माँ रसोई में थी कुछ काम किये जा रही थी। पहचानने में मुझे देर नहीं लगी क्योंकि माँ की एक तस्वीर मैं हमेशा अपने पास रखता था। मैं चुप था, माँ को देखते ही जुबान स्तब्ध हो गए, माँ ने फिर पूछा कौन है..? मेरे काँपते होठ ने कहा "सौकत" मेरा नाम सौकत । कौन सौकत..?? माँ ने फिर पूछा , मैं लगभग रोते हुए कहा आपका बेटा "अम्मी जान"। मुझे रोते देख वो चुप हो गई। इतने में एक हट्टा कट्ठा जवान पठान दरवाजे से आया। वो मेरी अम्मी का शौहर था। उसने मुझसे पूछा "ओये कोण है तू"- मैंने अपने बारे में सब कुछ बताया। पठान दिल का अच्छा था । उसने मेरी अम्मी से कहा कुछ खाने को दिया अपने बेटे को?? अच्छे से खातिरदारी करो इनकी..! ये कह के , वो किसी काम से बाहर चला गया। पर मेरी माँ के आँखों में मेरे लिए कोई स्नेह नहीं दिखा। एक माँ एक बेटे को खाना नहीं खिला रही थी बल्कि पठान के आदेश का पालन कर रही थी। मैं किसी की कोई शिकायत नही कर पाया अम्मी से, ये भी नही बता पाया कि बड़े ताऊ का बेटा मेरी किताबें फार दी और मुझे मारा भी। खाने के बाद अम्मी मेरे वहां से निकलने का इंतज़ार करने लगी..! उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की। मैं उनकी खामोशी को अपने तकदीर मे माँ का ना होना समझ रहा था..!! 

मैं जब वहां से निकला तो घर अब्बू के पास नहीं गया, क्योंकि वो जन्नत किस काम का जहाँ माँ ना हो। बस एक कभी ना पूरी होने वाली ख्वाइश को सीने में दबाये कि किसी दिन माँ आ के सीने से लगा लेगी,..! उस जन्नत को अलविदा कह दिया और आज आपके शहर में हूँ।

हुम् सब निःशब्द थे।

राहुल भूषण 

शनिवार, 24 नवंबर 2018

महबूब

ऐ सितारों तुम्हें कलियों के तबस्सुम की कसम,
ओस की बूंद पे सूरज की गवाही लेना;
खो गई है मेरे महबूब के चेहरे की चमक,

चाँद निकले तो जरा उसकी तलाशी लेना..!!©

रविवार, 23 सितंबर 2018

रामधारी सिंह 'दिनकर'


वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,

निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

ज़किर खान (मेरे कुछ सवाल हैं....)

मेरे कुछ सवाल है जो सिर्फ क़यामत के रोज पूछूँगा तुमसे ,
क्यूकी उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम …



मैं जानना चाहता हूँ क्या रक़ीब के साथ भी चलते हुए ,
शाम को यूँही बेख्‍याली मैं उसके साथ भी क्या हाथ टकरा जाता है क्या तुम्हारा ?

क्या अपनी छोटी उँगली से उसका भी हाथ थाम लिया करती हो तुम ,
क्या वैसे है जैसे मेरा थामा करती थी …?

क्या बता दी सारी बचपन की कहानियां तुमने उसको जैसे मुझको रात रात भर बैठ कर सुनाई थी तुमने …?

क्या तुमने बताया उसको की 30 के आगे की हिन्दी की गिनती आती नहीं तुमको …?

वो जो सारी तस्वीरें तुम्हारे पापा के साथ , तुम्हारी बहन ke साथ तुम्हारी थी , जिनमे तुम मुझे बड़ी प्यारी लग रही हो,
क्या उसे भी दिखा दी तुमने …?

 कुछ सवाल है जो सिर्फ क़यामत के रोज पूछूँगा तुमसे ,
क्यूकी उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम

के मैं पूछना चाहता हूँ क्या जब वो भी घर छोड़ने आता है तुमको,
तो क्या सीढ़ियों पे आँखें मीच कर मेरी ही तरह उसके सामने भी माथा आगे कर देती हो तुम,
वैसे ही जैसे मेरे सामने किया करती थी ?

क्या सर्द रातों में बंद कमरों में वो भी मेरी ही तरह ,
तुम्हारी नंगी पीठ पर अपनी उँगलियों से हर्फ दर हर्फ खुद का नाम गोदता है ,
और तुम भी अक्षर-बा-अक्षर पहचानने की कोशिश करती हो क्या जैसे मेरे साथ किया करती थी …?


कुछ सवाल है जो सिर्फ क़यामत के रोज पूछूँगा तुमसे ,
क्यूकी उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम …



शनिवार, 2 सितंबर 2017

आपकी याद

आपकी याद का ये हुआ है असर
अश्क आँखों में हँसते हुए आ गया
रिस्ता नींद आँखों का अब है रूठा हुआ
करवटें गिनते गिनते सुबह हो गया..
आपकी याद का....
अश्क आँखों में हँसते....

रास्ता अब कोई है ना आता नज़र
तुम गई जब से अंधियारा छाने लगा
ना है पाने की चाहत ना है खोने का गम
कोहिनूर मेरी आजा, है खुदा की कसम
आपकी याद का....
अश्क आँखो में....

अपने सपनों का एक घर बनाएंगे हम
बाग खुशियों का एक लगाएंगे हम
मान जा मेरी मुमताज़, मै तेरा शाहजहाँ
तेरी यादों का एक ताज़ बनाएंगे हम....
आपकी याद का....!!
अश्क आँखो में हँसते हुए....!!
Rahul@vats